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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
आईएसबीएन :0

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सुनसान के सहचर

23

विश्व-समाज की सदस्यता


नित्य की तरह आज भी तीसरे पहर उस सुरम्य वन श्री के अवलोकन के लिए निकला। भ्रमण में जहाँ स्वास्थ्य सन्तुलन की, व्यायाम की दृष्टि रहती है, वहाँ सूनेपन के सहचर से इस निर्जन वन में निवास करने वाले परिजनों से कुशल क्षेम पूछने और उनसे मिलकर आनन्द लाभ करने की भावना भी रहती है। अपने आपको मात्र मनुष्य जाति का सदस्य मानने की संकुचित दृष्टि जब विस्तीर्ण होने लगी, तो वृक्ष वनस्पति, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों के प्रति ममता और आत्मीयता उमड़ी। ये परिजन मनुष्य की बोली नहीं बोलते और न उनकी सामाजिक प्रक्रिया ही मनुष्य जैसी है, फिर भी अपनी विचित्रताओं और विशेषताओं के कारण इन मनुष्येतर प्राणियों की दुनियाँ भी अपने स्थान पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार धर्म, जाति, रंग, प्रान्त, देश, भाषा, भेद आदि के आधार पर मनुष्यों-मनुष्यों के बीच संकुचित साम्प्रदायिकता फैली हुई है, वैसी ही एक संकीर्णता यह भी है कि आत्मा अपने आपको केवल मनुष्य जाति का सदस्य माने। अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न जाति का समझे या उन्हें अपने उपयोग को, शोषण की वस्तु समझे। प्रकृति के अगणित पुत्रों में से मनुष्य भी एक है। माना कि उसमें कुछ अपने ढंग की विशेषताएँ हैं; पर अन्य प्रकार की अगणित विशेषताएँ सृष्टि के अन्य जीव-जन्तुओं में भी मौजूद हैं और वे भी इतनी बड़ी हैं कि मनुष्य उन्हें देखते हुए अपने आपको पिछड़ा हुआ ही मानेगा। 

आज भ्रमण करते समय यही विचार मन में उठ रहे थे। आरम्भ में इस निर्जन के जो सदस्य जीव-जन्तु और वृक्ष-वनस्पति तुच्छ लगते थे, अब अनुपयोगी प्रतीत होते थे, अब ध्यानपूर्वक देखने से वे भी महान् लगने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि भले ही मनुष्य को प्रकृति ने बुद्धि अधिक दे दी हो; पर अन्य अनेकों उपहार उसने अपने इन निर्बुद्धि माने जाने वाले पुत्रों को भी दिये हैं। उन उपहारों को पाकर वे चाहें तो मनुष्य की अपेक्षा अपने आप पर कहीं अधिक गर्व कर सकते हैं। 

इस प्रदेश में कितने प्रकार की चिड़ियाएँ हैं, जो प्रसन्नतापूर्वक दूर-दूर देशों तक उड़कर जाती हैं। पर्वतों को लाँघती हैं। ऋतुओं के अनुसार अपने प्रदेश पंखों से उड़कर बदल लेती हैं। क्या मनुष्य को यह उड़ने की विभूति प्राप्त हो सकी है। हवाई जहाज बनाकर उसने थोड़ा-सा प्रयत्न किया तो है, पर चिड़ियों के पंखों से उसकी तुलना क्या हो सकती है? अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए सजावट की रंग-बिरंगी वस्तुएँ उसने आविष्कृत की है, पर चित्र-विचित्र पंखों वाली, `स्वर्ग की अप्सराओं जैसी चिड़ियों और तितलियों जैसी रूप-सज्जा कहाँ प्राप्त हुई है। 

सर्दी से बचने के लिए लोग कितने ही तरह के वस्त्रों का प्रयोग करते हैं; पर रोज ही आँखों के सामने गुजरने वाले बरड़ (जंगली भेड़) और रीछ के शरीर पर जमे हुए बालों जैसे गरम ऊनी कोट शायद अब तक किसी मनुष्य को उपलब्ध नहीं हुए। हर छिद्र से हर घड़ी दुर्गन्ध निकालने वाले मनुष्य को हर घड़ी अपने पुष्पों से सुगन्ध बिखेरने वाले लता, गुल्मों से क्या तुलना हो सकती है। साठ-सत्तर वर्ष में जीर्ण-शीर्ण होकर मर खप जाने वाले मनुष्य की इन अजगरों से क्या तुलना की जाए, जो चार सौ वर्ष की आयु को हँसी-खुशी पूरा कर लेते हैं। वट और पीपल के वृक्ष भी हजार वर्ष तक जीवित हैं। 

कस्तूरी मृग जो सामने वाले पठार पर छलाँग मारते हैं किसी भी मनुष्य को दौड़कर परास्त कर सकते हैं। भूरे बाल वालों से मल्ल युद्ध में क्या कोई मनुष्य जीत सकता है। चींटी की तरह अधिक परिश्रम करने की सामर्थ्य भला किस आदमी में होगी। शहद की मक्खी की तरह फूलों में से कौन मधु संचय कर सकता है। बिल्ली की तरह रात के घोर अन्धकार में देख सकने वाली दृष्टि किसे प्राप्त है। कुत्तों की तरह घ्राण-शक्ति के आधार पर बहुत कुछ पहचान लेने की क्षमता भला किसमें होगी। मछली की तरह निरन्तर जल में कौन रह सकता है। हंस के समान नीर-क्षीर विवेक किसे होगा ! हाथी के समान बल किस व्यक्ति में है ! इन विशेषताओं से युक्त प्राणियों को देखते हुए मनुष्य का यह गर्व करना मिथ्या मालूम पड़ता है कि वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। 

आज के भ्रमण में यही विचार मन में घूमते रहे कि मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। सर्वश्रेष्ठ भी नहीं है, सबका नेता भी नहीं है। उसे बुद्धि, बल मिला सही। उनके आधार पर उसने अपने सुख-साधन बढ़ाये हैं। यह भी सही है, पर साथ ही यह भी सही है कि इसे पाकर उसने अनर्थ ही किया। सृष्टि के अन्य प्राणी जो उसके भाई थे, यह धरती उनकी भी माता ही थी, उस पर जीवित रहने, फलने और स्वाधीन रहने का उन्हें भी अधिकार था, पर मनुष्य ने सबको पराधीन बना डाला, सबकी सुविधा और स्वतन्त्रता को बुरी तरह पद-दलित कर डाला। पशुओं को जंजीर से कसकर उससे अत्यधिक श्रम लेने के लिए पैशाचिक उत्पीड़न किया, उनके बच्चों के हक का दूध छीनकर स्वयं पीने लगा, निर्दयतापूर्वक वध करके मांस खाने लगा, पक्षियों और जलचरों के जीवन को भी उसने अपनी स्वाद प्रियता और विलासिता के लिए बुरी तरह नष्ट किया। मांस के लिए, दवाओं के लिए, फैशन के लिए, विनोद के लिए उनके साथ कैसा नृशंस व्यवहार किया, उस पर विचार करने से दम्भी मनुष्य की सारी नैतिकता मिथ्या ही प्रतीत होती है। 

जिस प्रदेश में अपनी निर्जन कुटिया है उसमें पेड़-पौधों के अतिरिक्त जलचर, थलचर, नभचर जीव जन्तुओं की भी बहुतायत है। जब भ्रमण को निकलते हैं, तो अनायास ही उनसे भेंट करने का अवसर मिलता है। आरम्भ के दिनों में वे डरते थे; पर अब तो पहचान गये हैं। मुझे अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मान लिया है। अब न वे मुझसे डरते हैं और न अपने को ही उनसे डर लगता है। दिन-दिन समीपता और घनिष्ठता बढ़ती जाती है। लगता है इस पृथ्वी पर ही एक महान् विश्व मौजूद है। उस विश्व में प्रेम, करुणा, मैत्री सहयोग, सौजन्य, सौन्दर्य, शान्ति सन्तोष आदि स्वर्ग के सभी चिह्न मौजूद हैं। उससे मनुष्य दूर है। उसने अपनी एक छोटी-सी दुनियाँ अलग बना रखी है- मनुष्यों की दुनियाँ। इस अहंकारी और दुष्ट प्राणी ने भौतिक विज्ञान की लम्बी-चौड़ी बातें बहुत की हैं। महानता और श्रेष्ठता के, शिक्षा और नैतिकता के लम्बे-चौड़े विवेचन किए हैं; पर सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ उसने जो दुर्व्यवहार किया है, उससे उस सारे पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है, जो वह अपनी श्रेष्ठता अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता को बखानते हुए प्रतिपादित किया करता है। 

आज विचार बहुत गहरे उतर गये, रास्ता भूल गया, कितने ही पशु-पक्षियों को आँखें भर-भरकर देर तक देखता रहा। वे भी खड़े होकर मेरी विचारधारा का समर्थन करते रहे। मनुष्य ही इस कारण सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी नहीं माना जा सकता कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा बुद्धिबल अधिक है। यदि बल ही बड़प्पन का चिह्न हो तो दस्यु, सामन्त, असुर, पिशाच, बेताल, ब्रह्मराक्षस आदि की श्रेष्ठता को मस्तक नवाना पड़ेगा। श्रेष्ठता के चिह्न हैं सत्य, प्रेम, न्याय, शील, संयम, उदारता, त्याग, सौजन्य, विवेक, सौहार्द। यदि इनका अभाव रहा तो बुद्धि का शस्त्र धारण किये हुए नर-पशु- उन विकराल नख और दाँतों वाले हिंसक पशुओं से कहीं अधिक भयंकर हैं। हिंसक पशु भूखे होने पर आक्रमण करते हैं, पर यह बुद्धिमान् नर-पशु तो तृष्णा और अहंकार के लिए भी भारी दुष्टता और क्रूरता का निरन्तर अभियान करता रहता है। 

देर बहुत हो गयी थी। कुटी पर लौटते-लौटते अन्धेरा हो गया। उस अन्धेरे में बहुत रात गए तक सोचता रहा कि मनुष्य की ही भलाई की, उसी की सेवा की, उसी का सान्निध्य किया, उसी की उन्नति की, बात जो हम सोचते रहते हैं क्या इसमें जातिगत पक्षपात भरा नहीं है? क्या यह संकुचित दृष्टिकोण नहीं हैं? सद्गुणों के आधार पर ही मनुष्य को श्रेष्ठ माना जा सकता है, अन्यथा वह वन्य जीवधारियों की तुलना में अधिक दुष्ट ही है। हमारा दृष्टिकोण मनुष्य की समस्याओं तक ही क्यों न सीमित रहे? हमारा विवेक मनुष्येतर प्राणियों के साथ आत्मीयता बढ़ाने, उनके सुख-दु:ख में सम्मिलित होने के लिए अग्रसर क्यों न हो? हम अपने को मानव समाज की अपेक्षा विश्व समाज का एक सदस्य क्यों न मानें?"

इन्हीं विचारों में रात बहुत बीत गई। विचारों के तीव्र दबाव में नींद बार-बार खुलती रही। सपने बहुत दीखे। हर स्वप्न में विभिन्न जीव-जन्तुओं के साथ क्रीड़ा विनोद स्नेह-संलाप करने के दृश्य दिखाई देते रहे। उन सबके निष्कर्ष यही थे कि अपनी चेतना विभिन्न प्राणिय के साथ स्वजन सम्बन्धियों जैसी घनिष्ठता अनुभव कर रही है। आज के सपने बड़े ही आनन्ददायक थे। लगता रहा जैसे एक छोटे क्षेत्र से आगे बढ़कर आत्मा विशाल विस्तृत क्षेत्र को अपना क्रीड़ांगन बनाने के लिए अग्रसर हो रहा है। कुछ दिन पहले इस प्रदेश का सुनसान अखरता था, पर अब तो सुनसान जैसी कोई जगह ही दिखाई नहीं पड़ती। सभी जगह विनोद करने वाले सहचर मौजूद हैं। वे मनुष्य की तरह भले ही न बोलते हों, उनकी परम्पराएँ मानव समाज जैसी भले ही न हों, पर इन सहचरों की भावनाएँ मनुष्य की अपेक्षा हर दृष्टि से उत्कृष्ट ही हैं। ऐसे क्षेत्र में रहते हुए तो ऊबने का अब कोई कारण प्रतीत नहीं होता। 

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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